गीता० अध्याय 13, 22 

  उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेsस्मिन्पुरूष: पर:॥

वास्तव में तो यह पुरूष इस देह में स्थित होकर भी पर अर्थात त्रिगुणमयी माया से सर्वथा अतीत हीं है, केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होने से अनुमन्ता एवं सबको धारण करनेवाला होने से भर्ता, जीवरूप होने से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा ऐसा कहा जाता है।   

ईश्वरार्पण या ईश्वर पर निर्भरता का अर्थ हीं है जो स्थिति आये उसे स्वीकार करना। हम लीला को नहीं समझते। स्थिति का इंकार लीला की अभिव्यक्ति को और अस्पष्ट या ठोस स्वरूप कर देती है और हमारी दृष्टि ठोस को नहीं भेद पातीं। हम स्थूल पर रह जायें इससे बेहतर है कि स्थिति को स्वीकार कर तरल रूप में, चेतन रूप में, गतिशील रूप में लीला का दर्शन करें। तभी हम लीला में सहभागी बनते हैं।  

शुभमस्तु 

सौरभ कुमार