वरदान

मैं अपने खुले दो हस्त लिए

अकिंचन राह में खड़ा था।

सभी प्रसन्न मुदित खड़े

अपने-अपने ‘भाग’ हाथ में ले

सराहते ‘भाग’ में लिप्त थे।

परंतु मेरे वरदान की सीमा न रही

तुम स्वयं आ कर प्रकट हुए

मेरे दो खाली हाथ उस

समय भी तुम्हें प्रणाम

करने को प्रस्तुत थे।

तुम्हारे गले में डालने

वाली दो बाँह मेरे ही थे।


सौरभ कुमार